Rig Veda Mandal 9 Sukt 94

Rig Veda Mandal 9 Sukt 94 Mantra 1

  • God roams like a poet

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1

अधि॑ । यत् । अ॒स्मि॒न् । वा॒जिनि॑ऽइव । शुभः॑ । स्पर्ध॑न्ते । धियः॑ । सूर्ये॑ । न । विशः॑ । अ॒पः । वृ॒णा॒नः । प॒व॒ते॒ । क॒वि॒ऽयन् । व्र॒जम् । न । प॒शु॒ऽवर्ध॑नाय । मन्म॑ ॥

Poor Translation by Dayanand Saraswati

  • (सूर्य्ये) सूर्य्य के विषय में (न) जैसे (विशः) रश्मियें प्रकाशित करती हैं, उसी प्रकार (धियः) मनुष्यों की बुद्धियें (स्पर्धन्ते) अपनी-२ उत्कट शक्ति से विषय करती हैं। (अस्मिन् अधि) जिस परमात्मा में (वाजिनीव) सर्वोपरि बलों के समान (शुभः) शुभ बल है, वह परमात्मा (अपो वृणानः) कर्म्मों का अध्यक्ष होता हुआ (पवते) सबको पवित्र करता है। (कवीयन्) कवियों की तरह आचरण करता हुआ (पशुवर्धनाय) सर्वद्रष्टृत्वपद के लिये (व्रजं, न) इन्द्रियों के अधिकरण मन के समान ‘व्रजन्ति इन्द्रियाणि यस्मिन् तद् व्रजम्’ (मन्म) जो अधिकरणरूप है, वही श्रेय का धाम है ॥१॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji

Rig Veda Mandal 9 Sukt 94 Mantra 4

  • God acquires age for his devotees

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 4

श्रि॒ये । जा॒तः । श्रि॒ये । आ । निः । इ॒या॒य॒ । श्रिय॑म् । वयः॑ । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । द॒धा॒ति॒ । श्रिय॑म् । वसा॑नाः । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒य॒न् । भव॑न्ति । स॒त्या । स॒म्ऽइ॒था । मि॒तऽद्रौ॑ ॥

Translation by Dayanand Saraswati

  • वह परमात्मा (श्रिये जातः) ऐश्वर्य्य के लिये सर्वत्र प्रगट है और (श्रियं निरियाय) श्री के लिये ही सर्वत्र गतिशील है और (श्रियं) ऐश्वर्य्य को और (वयः) आयु को (जरितृभ्यः) उपासकों के लिये (दधाति) धारण करता है। (श्रियं वसानाः) श्री को धारण करता हुआ (अमृतत्वमायन्) अमृतत्व को विस्तार करता हुआ (सत्या समिथा) सत्यरूपी यज्ञों के करनेवाला होता है। (मितद्रौ) सर्वज्ञ गतिशील परमात्मा में (सत्या भवन्ति) ब्रह्मयज्ञ चित्त की स्थिरता के हेतु होते हैं ॥४॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji


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