Yajurveda Adhyay 40

Mantras from Yajurveda Adhyay 40

The following mantras from Yajurveda Adhyay 40 are explained below

  • Yajurveda Adhyay 40 Mantra 15
  • Yajurveda Adhyay 40 Mantra 17
  • Yajurveda Adhyay 40 Mantra 8
  • Yajurveda Adhyay 40 Mantra 10
  • Yajurveda Adhyay 40 Mantra 13

Yajurveda Adhyay 40 Mantra 15

  • The knowledge giver of Vedas (Brahm) says that his mantra of worship is 'Om' (ओ३म्).
  • This is exactly the same as Bhagavad Gita Chapter 8, Verse 13 where the knowledge giver of gita (i.e. Brahm) says that his mantra is Om

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15

वायुः। अनि॑लम्। अमृत॑म्। अथ॑। इदम्। भस्मा॑न्तमिति भस्म॑ऽअन्तम्। शरी॑रम् ॥ ओ३म्। क्रतो इति क्रतो॑। स्मर। क्लिबे। स्मर। कृतम्। स्मर ॥१५ ॥

(very poor) Translation by Dayanand Saraswati

  • हे (क्रतो) कर्म करनेवाले जीव ! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नामवाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर (क्लिबे) अपने सामर्थ्य के लिये परमात्मा और अपने स्वरूप का (स्मर) स्मरण कर (कृतम्) अपने किये का (स्मर) स्मरण कर। इस संस्कार का (वायुः) धनञ्जयादिरूप वायु (अनिलम्) कारणरूप वायु को, कारणरूप वायु (अमृतम्) अविनाशी कारण को धारण करता (अथ) इसके अनन्तर (इदम्) यह (शरीरम्) नष्ट होनेवाला सुखादि का आश्रय शरीर (भस्मान्तम्) अन्त में भस्म होनेवाला होता है, ऐसा जानो ॥१५ ॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji

Yajurveda Adhyay 40 Mantra 17

  • The knowledge giver of Vedas (Brahm) mentions about another Supreme God who lives in Satlok.

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 17

हिरण्मये॑न। पात्रे॑ण। सत्यस्य॑। अपि॑हितमित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। असौ। आदित्ये। पुरु॑षः। सः। असौ। अहम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥

Translation by Dayanand Saraswati

  • हे मनुष्यो ! जिस (हिरण्मयेन) ज्योतिःस्वरूप (पात्रेण) रक्षक मुझसे (सत्यस्य) अविनाशी यथार्थ कारण के (अपिहितम्) आच्छादित (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम अङ्ग का प्रकाश किया जाता (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण वा सूर्य्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्षरूप (अहम्) मैं (खम्) आकाश के तुल्य व्यापक (ब्रह्म) सबसे गुण, कर्म और स्वरूप करके अधिक हूँ (ओ३म्) सबका रक्षक जो मैं उसका ‘ओ३म्’ ऐसा नाम जानो ॥१७ ॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji

Yajurveda Adhyay 40 Mantra 8

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 8

सः। परि॑। अगात्। शुक्रम्। अकायम्। अव्रणम्। अस्नाविरम्। शुद्धम्। अपा॑पविद्धमित्यपा॑पऽविद्धम् ॥ कविः। मनीषी। परिभूरिति॑ परिऽभूः। स्व॒यम्भूरिति॑ स्वयम्ऽभूः। याथातथ्यत इति॑ याथाऽतथ्यतः। अर्था॑न्। वि। अदधात्। शाश्वतीभ्यः॑। समा॑भ्यः ॥८ ॥

Poor Translation by Dayanand Saraswati

  • हे मनुष्यो ! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) सर्वत्र (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता, पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है ॥८ ॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji

The God for whom every living being is yearning, He is Kavir i.e. Kabir. (Asanaaviram) His body is without blood vessels and (Shukram Akaayam) is devoid of a physical body made up of the five elements formed from seminal fluid. That Master of all is seated in the topmost Satlok. That Supreme God has a (Swarjyoti) self-illuminated body made of masses of lights, which is in wordform, that is, is eternal. He is the same KavirDev (Supreme God Kabir) (Vyaddhata) who is the creator of all the brahmands, (SwayambhuH) who appears Himself, that is, is self-existent (Yatha tathya arthan) in reality (Shashvat) is eternal.

Yajurveda Adhyay 40 Mantra 10

  • The knowledge giver of Vedas i.e. Brahm says that the real knowledge can be gained from 'Tatvadarshi' Saints.

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10

अन्यत्। एव। आहुः। सम्भवादिति॑ सम्ऽभवात्। अन्यत्। आहुः। अस॑म्भवादित्यस॑म्ऽभवात् ॥ इति॑। शुश्रुम। धीरा॑णाम्। ये। नः। तत्। विचचक्षिर इति॑ विऽचचक्षिरे ॥१० ॥

Poor Translation by Dayanand Saraswati

  • हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (धीराणाम्) मेधावी योगी विद्वानों से जो वचन (शुश्रुम) सुनते हैं (ये) जो वे लोग (नः) हमारे प्रति (तत्) (विचचक्षिरे) व्याख्यानपूर्वक कहते हैं, वे लोग (सम्भवात्) संयोगजन्य कार्य्य से (अन्यत्, एव) और ही कार्य्य वा फल (आहुः) कहते (असम्भवात्) उत्पन्न नहीं होनेवाले कारण से (अन्यत्) और (आहुः) कहते हैं, (इति) इस बात को तुम भी सुनो ॥१० ॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji

Yajurveda Adhyay 40 Mantra 13

  • Tatvadarshi' Saints will tell who is knowledgeable and who is ignorant. 

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 13

अन्यत्। एव। आहुः। विद्यायाः॑। अन्यत्। आहुः। अवि॑द्यायाः ॥ इति॑। शुश्रुम। धीरा॑णाम्। ये। नः। तत्। विचचक्षिरे इति॑ विऽचचक्षिरे ॥१३ ॥

Translation by Dayanand Saraswati

  • हे मनुष्यो ! (ये) जो विद्वान् लोग (नः) हमारे लिये (विचचक्षिरे) व्याख्यापूर्वक कहते थे (विद्यायाः) पूर्वोक्त विद्या का (अन्यत्) अन्य ही कार्य वा फल (आहुः) कहते थे (अविद्यायाः) पूर्व मन्त्र से प्रतिपादन की अविद्या का (अन्यत्, एव) अन्य फल (आहुः) कहते हैं (इति) इस प्रकार उन (धीराणाम्) आत्मज्ञानी विद्वानों से (तत्) उस वचन को हम लोग (शुश्रुम) सुनते थे, ऐसा जानो ॥१३ ॥

Correct Translation by Sant Rampal Ji


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